पवन की मौत ने भावुक कर दिया है..
इसलिए आप से यह विचारोत्तेजक अपील कर दिया..
आज वह खुद ख़बर है, जो कभी ख़बरनवीश था.
पवन जायसवाल की असामयिक निधन से एक बात तो स्पष्ट है कि आंचलिक पत्रकारों का कोई माँ-बाप नहीं है. जिस अखबार का दो तिहाई पन्ना उसके ख़बरों से भरा जाता है, जिसके विज्ञापनों से पत्रों की आर्थिक स्थिति मजबूत होती है, वह आंचलिक पत्रकार कितना बेबस, कमज़ोर और निराशाजन्य परिस्थितियों में काम करता है.यह पवन के रूप में हम देख सकते हैं. कैंसर से जंग हार चुके पवन के पीछे दो मासूम बेटे और पत्नी का पहाड़ सा जीवन है. इस परिवार का वही एकमात्र सहारा था, जिसे क्रुर काल ने असमय छिन लिया. कैंसर से इलाज के लिए लंबी लड़ाई लिया, परिवार इस लड़ाई में आर्थिक रूप से टूट गया है.
मित्रों! जब परिवार का आधार छिना जाता है न, तो सिर्फ वह आधार ही नहीं खत्म होता, परिवार भी मरता है, एक-एक दिन तिल-तिल करके.. उसकी उम्मीदें और भरोसा भी मरता है. आज के दौर में कलमकार और वह भी आंचलिक पत्रकार के जीवन और भविष्य की यही झांकी है, जो पवन जायसवाल के रूप में हमने वर्तमान में पत्रकारिता समाज के बीच एक घने और घुप्प अंधेरे के रुप में दिखता है. चमकदार और आकर्षक पेशे की यही जमीनी सच्चाई है…
मेरा मत है कि ऐसी परिस्थितियों में केवल एक पत्रकार और उसका परिवार ही नहीं मरता है, बल्कि समाज और उसकी सोच भी मरती है. हमारे समय की पत्रकारिता और जनतंत्र की उम्मीद मरती है. एक कल्याणकारी राज और वह भी कथित रामराज्य की परिकल्पना मरती है, पत्रकार संगठन, संपादक सत्ता, लोक प्रहरी, राष्ट्र नायक, लोक चितेरा और सबसे बड़ी बात पीढ़ियों की उम्मीद मरती है. ऐसे छिजते समय में क्या हम जिन्दा भी है.. या फिर हम रेंगती और चलती- फिरती लाशें है, जो मांस और मज्जा से निर्मित तो होती हैं लेकिन इंसानियत की संवेदनाएं पाषाण हो जाती हैं. क्या ऐसे खतरनाक समय में आंचलिक पत्रकारों के लिए कोई कोष नहीं बनना चाहिए. कोई इमरजेंसी फंड की व्यवस्था नहीं होनी चाहिये, जो किसी मुसिबत में पड़े पत्रकार और उसके परिवार को आपात स्थिति से उबारा जा सके. प्रतिदिन हजारों रूपये हम अपनी शान- ओ- शौकत में उड़ा देते हैं लेकिन क्या उसका दसांश भी किसी कलमकार, जो आप की अपनी ही आवाज़ है, के लिए नहीं दे सकते हैं.. इस गंभीर समस्या पर विचार होना चाहिए. इस पर बहस होनी चाहिए.आंचलिक पत्रकारिता को एक इमरजेंसी फंड क्रियेट करना चाहिए. चाहे वह भले ही क्राउड फंडिंग से ही यह क्रियेट हो.. विचार करें.. आगे आएं.. और अपनी आवाज़ की डोर को टूटने से बचाए.. इंसान और संवेदनशील बनें…
माफ़ी के साथ..
-एक आंचलिक पत्रकार
डॉ अरविंद सिंह
पवन जैसवाल के द्वारा भेजी गई कुछ पंक्ति
कुछ पल के लिए तुम्हारे लिए लड़ने वालों का तुम सम्मान किये होते!
कलम बेचकर मिठाई खाते वक्त तुम कुछ तो शर्म किये होते!!
क्या सोचे कलम झुकाकर तुम्हारा कद बढ़ जायेगा!
जिसने तेरे साथ जो कृत्य किया क्या उसपर हो वैसा ही कृत्य तो वो सह पायेगा!!
दो नये मोबाइल पैसे के लिए ईमान गिरवी रख आये तुम!
जो प्रहार हुवा कलम पर बड़ी जल्द भूल आये तुम!!
कितना कीमत लगाया सम्मान का, सबको जरा तुम बतला दो!
अब कबतक चलेगा कलम तुम्हारा ये भी सबकों बतला दो!!
आज कलम अपनी किश्मत पर फुट फुट कर रोता है!
किसका कलमकारों ने साथ दे दिया सोचकर हैरानी होता है!!
पवन जायसवाल✍✍✍✍
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