पत्रकार संगठनों के लिए एक मई को दो मिनट का मौन रखिएगा !
जिसकी मौत हो जाती है वो हर मौके पर मौन रहता है। और मरने वालों के लिए दो मिनट का मौन रखा जाता है। पत्रकारों के हर मुद्दे पर जो पत्रकार संगठन ख़ामोश रहते हैं, पत्रकार साथी उन्हें मुर्दा ही समझें।
एक मई को मजदूर दिवस मनाया जाता है। असंगठित श्रमजीवियों को संगठित करने की कोशिश का दिन है मजदूर दिवस। श्रमजीवी पत्रकार भी असंगठित श्रमिकों की श्रेणी में आते हैं। असंगठित श्रमजीवियों को संगठित करने की कोशिश में पत्रकार संगठन खासकर पत्रकार यूनियनें भी लम्बे अरसे से मजदूर दिवस मनाती रही हैं। इस दिन संगोष्ठियों में पत्रकारों के शोषण के खिलाफ लड़ने का प्रण लिया जाता है। हक़ की लड़ाई की हुंकार भरी जाती है। बड़े-बड़े पत्रकार/मीडिया संगठनों के लोग बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। बड़े-बड़े मंच सजते हैं, और बड़े-बड़े पत्रकार नेता डायस पर बैठते हैं और माइक के सामने दहाड़ते हैं।
एक मई गुज़र जाता है और फिर ये लोग साल भर के लिए ख़ामोश हो जाते हैं। खामोशी पसंद ये बड़े पत्रकार समय-समय पर खामोशी का ही एक इवेंट जरूर करते हैं। शोक सभा, जिसमें दो मिनट के मौन यानी खामोशी के साथ गुज़र जाने वाले साथी को याद किया जाता है। जिन्दा जब किसी किस्म की परेशानी में मुब्तिला होता है तब भी मौन और उसके मर जाने के बाद भी मौन।
शोर सिर्फ मजदूर दिवस पर मचता है। पत्रकारों के अधिकारों की बातों वाले इस दिन नाश्ते का डिब्बा भी बंटता है। जिसमें-
फ्रूटी
सैंडविच
पेटीज़
केला
और एक ठो मिठाई का पीस होता है। इस डिब्बे को आम पत्रकारों की उपस्थिति दर्ज कराने का मेहनताना समझिए। मैं भीड़ वाला हूं। ये डिब्बा पाने के लिए मैं साल भर दो मई का इंतेज़ार करता हूं। पत्रकार संगठनों के बड़े मंगल के भंडारों में भी जाता हूं, खाता हूं और पूरी बंधवा कर भी ले आता हूं। संगठनों की रोजा इफ्तार पार्टियों में भी जाता हूं। पत्रकार नेताओं के ईद और होली मिलन कार्यक्रमों में पंहुचा कर फ्री का जायकेदार खाना भी सूत लेता हूं। ऐसी आदतों से मजबूर हूं। डरपोक हूं, चाटूकार हूं, एडेंडाधारी हूं, समझौतावादी हूं, गिरगिट हूं.. तमाम ऐसे ऐब हैं मुझमें। इसलिए ही सम्मानति, प्रतिष्ठित और नामी-गिरामी पत्रकार पत्रकारों की श्रेणी में नहीं हूं। अपनी तमाम कमियों की वजह से ही खुद को कोई पत्रकार संगठन चलाने लायक नहीं समझता। और लखनऊ के पत्रकार भी मुझे किसी लायक नहीं समझते इसलिए किसी भी चुनाव में मुझे हरा देते हैं।
मेरा न कोई संगठन है और न ही किसी संगठन से जुड़ा हूं। मेरी छतरी में ही इतने छेद हैं तो ये कैसे दावा करूं कि पत्रकार मेरी छतरी के नीचे आ जाएं। किसी शहर, प्रदेश या देशव्यापी पत्रकार संगठन संचालित करने का यही दावा होता है कि हम फलां शहर, प्रदेश या देश के पत्रकारों के नुमाइंदे हैं। इनके हक़ की बात ही नहीं करते उनके अधिकारों के लिए जमीन पर उतर कर लड़ते हैं। लेकिन हजारों पत्रकारों के नुमाइंदे बन कर जब मुमाइंदगी नहीं करेंगे तो हजारों की भीड़ पत्रकार नेताओं, संगठनों और इज्जतमुआब सहाफियों से सवाल तो पूछेगी ही।
व्यंग्य/नवेद शिकोह
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