अब दिल्ली में लेखक दूसरे लेखकों से उस बेतकल्लुफी से नहीं मिलते। मुझे याद है 90 के दशक में जब दिल्ली विश्वविद्यलय का विद्यार्थी था अक्सर बिना समय मांगे बड़े-बड़े लेखकों के घर पहुँच जाता था। कोई बुरा नहीं मानता था। निर्मल वर्मा के अकेलेपन, उनकी बरसाती का ऐसा सम्मोहन था कि एक बार मैं उनके करोलबाग वाले घर में पहुँच गया। उनकी बरसाती में बैठकर घंटे भर बात की। उदय प्रकाश और मनोहर श्याम जोशी पर तो ऐसा हक़ समझता था कि जब जी चाहे चला जाता था। फोन करके कमलेश्वर जी से मिलने जाना पड़ता था क्योंकि वे मुंबई-दिल्ली करते रहते थे। मुझे याद नहीं कि कभी उन्होंने आने से मना किया हो। आज तो पड़ोस में रहने वाला लेखक भी बहाना बना देता है। झूठ क्यों बोलूं खुद मैं भी बहाना बना देता हूँ। लेखक समाज में अब वह ऊष्मा नहीं रही। एक दूसरे को सहयोग देने की भावना भी जाती रही। पिछले बीस सालों में यह बड़ा बदलाव देखा है मैंने।
प्रभात रंजन
var /*674867468*/