हिन्दी पत्रकारों का बुढ़ापा और भविष्य

 हिन्दी पत्रकारों का बुढ़ापा और भविष्य

हिन्दी पत्रकारों का बुढ़ापा और भविष्य

छह आठ महीने पहले एक अनजान नंबर से फोन आया था। फोन करने वाले ने पूछा कि संजय जी आपका नंबर मेरे पास काफी समय से सेव है मैं पहचान नहीं पा रहा हूं कि आप कौन हैं। सभ्य और बुजुर्ग सी आवाज थी तो मैंने अपना परिचय बता दिया। उन्होंने भी अपना नाम और हाल-चाल सब बताया। मैंने उनका नंबर सेव कर लिया। लंबी बात हुई। मैं भी रिटायर, बेरोजगार की ही श्रेणी में हूं सो अच्छा ही लगा।

उसके बाद शायद दो बार या एक ही बार फोन आया था। हालचाल और पत्रकारिता राजनीति पर बात हुई। रिटायरमेंट के बाद बुढ़ापे में परेशानी झेल रहे हैं वह भी मुद्दा था। बच्चों के बारे में मैंने पूछा नहीं, उन्होंने बताया नहीं या बताया भी हो तो मुझे याद नहीं है। पर वे साथ नही रहते हैं। शायद खबर भी नहीं लेते हैं या हों ही नहीं।

आज फिर उनका फोन आया था। रुआंसे लग रहे थे। मैंने उत्साहपूर्वक बात कर स्थिति समझने और संभालने की कोशिश थी। अंदाजा तो था पर मैं भी किसी की कितनी मदद कर सकता हूं। बातचीत में उन्होंने कहा कि कई दिनों बाद आज ठीक से खाना खाया हूं। चूंकि नियमित खाना नहीं खाता इसलिए खाना था भी तो खा नहीं पाया और ऐसी ही बातें। काम नहीं है। तुम्हारा काम कैसा चल रहा है आदि। अंत में उन्होंने कहा कि किसी से कुछ पैसे दिलवा सको तो दिला दो।

मैंने उनसे उनका शहर पूछा। बातचीत में जिन नामों की चर्चा आई थी उनसे बात करने के लिए कहा। पर वे यही कहते रहे कि कितना मांगू। सब से मांग चुका हूं। शर्म आती है। और फलां तो फोन भी नहीं उठाता। उसके पास काम हैं, पैसे होंगे तो व्यस्त रहता है। उससे बात नहीं हो पाती। आदि आदि। मतलब संकट सिर्फ अभी का नहीं है।

कुछ पैसे मैं उन्हें अभी दे दूं तो फिर अगली बार वो मुझसे मांगने में हिचकेंगे या दो-चार बार मैं दे दूं तो मुझे ही फोन उठाना बंद करना पड़ेगा। क्या गोबर पट्टी में जहां हिन्दी वालों की और भिन्न पार्टियों की सरकार है। पत्रकारों को खिलाने-पिलाने को बुरा नहीं माना जाता रहा है वहां किसी बूढ़े-बुजुर्ग पत्रकार के लिए कोई व्यवस्था नहीं हो सकती है?

अगर सरकारें नहीं कर रही हैं तो कौन करेगा? क्या यह हमारा काम और हमारी जिम्मेदारी नहीं है? हो सकता मुझे जरूरत ना पड़े पर क्या मुझे अपने बुढ़ापे में किसी साथी की मदद न कर पाने का अफसोस नहीं रहे इसके लिए अभी कुछ नहीं करना चाहिए। किसी एक साथी की मदद करने से कब तक काम चल पाएगा। मुझे लगता है कि रिटायर, बुजुर्ग या अक्षम पत्रकारों के लिए कुछ किया जाना चाहिए। फिलहाल तो उक्त पत्रकार को भी सहायता की जरूरत है।

क्या हम कुछ करेंगे या ताली-थाली ही बजाते रहेंगे। जो पत्रकारिता नहीं कर रहे हैं वही कुछ दान सुख प्राप्त कर लें। चारण पत्रकारिता की स्थायी -कमाऊ व्यवस्था कर दें जिससे साथियों का जीवन आराम से निकल सके। जिनका समय निकल गया वो तो अब अफसोस ही कर सकते हैं। हमारी अपनी स्थिति वैसी ही नहीं हो यह कैसे तय होगा?

पहले लोकोपकार करने वाले बहुत सारे लोग और संस्थाएं होती थीं। अब सब पीएम केयर्स में समाहित है। विदेशी दान उड़ाने की संभवानाओं पर सरकार की नजर है। ऐसे में यह काम करना तो सरकार को ही चाहिए पर सरकार के समर्थक करवा सकते हैं या इसे गैर जरूरी बता सकते हैं?

संजय कुमार सिंह

var /*674867468*/

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *