देश में तीन तरह के पत्रकार हैं। एक जो सत्ता की ओर से पैसा प्राप्त पत्रकार है। दूसरा विपक्ष की ओर से

 देश में तीन तरह के पत्रकार हैं। एक जो सत्ता की ओर से पैसा प्राप्त पत्रकार है। दूसरा विपक्ष की ओर से

मैं अकेला नहीं हूं जो खाने की रेसिपी के बारे में लिखने लगा हूं। अपने पूज्य पिता शंभूनाथ जी भी अब कुछ का कुछ लिखने लगे हैं। कभी तिल के बकरे की बलि की कथा लिखते हैं तो कभी अपने सपने की।
कोई क्या करे?
आप शंभूनाथ जी को कम जानते हैं। मैं पिछले 34 वर्षों से जानता हूं। एक खालिस जर्नलिस्ट। राजनीतिक ज्ञान से सराबोर। पर समय जो न कराए। संजय सिन्हा तो बचपन से सॉफ्ट जर्नलिस्ट रहे हैं, पर शंभूनाथ शुक्ल तो हार्ड कोर जर्नलिस्ट रहे हैं। पर अब वो सपने की कथा तो लिख सकते हैं, सच की नहीं। अब वो इशारों में तो व्यथा बयां कर सकते हैं, खुल्लम-खुल्ला नहीं। कोई नहीं कर सकता है।
अब देश में तीन तरह के पत्रकार हैं। एक जो सत्ता की ओर से पैसा प्राप्त पत्रकार है। दूसरा विपक्ष की ओर से। और जो बच गए वो शंभू जी और मेरी तरह अब्दुल्ला दीवाना हैं।
आप किसी का यू ट्यूब चैनल देख लीजिए। लाखों करोड़ों दर्शक किसके पास हैं? जो खुल्लम खुल्ला सत्ता पक्ष के साथ है या खुल्लम खुल्ला विरोध में। मतलब देश में दो तरह के पत्रकारों की खेप तैयार हो गई है, जिनकी नज़र में या तो सत्ता में सब सही है, या फिर सब गलत। जबकि पत्रकारिता में हमें पढ़ाया गया था कि न्यूज़ पहले, व्यूज़ बाद में।
खैर, मैं ये क्यों लिख रहा हूं। मुझे या तो कोई कहानी सुनानी चाहिए या फिर कोई रेसिपी बतानी चाहिए, ताकि Manohar Lal Ludhani कह सकें, “ये भी देखना बाकी था।”
मैं कहता हूं अभी बहुत कुछ देखना बाकी है। अभी कुछ बाकी है इस पर मैं चार बार सुनाई खोपड़ी की कहानी आपको आज पांचवी बार सुनाऊंगा ताकि जो बाकी है वो आपको भी पता चले। क्योंकि जो होगा वो सिर्फ संजय सिन्हा या शंभूनाथ शुक्ल का थोड़े न होगा। सबका होगा।
आम तौर पर शंभू जी के लिखे पर मैं ऐसी कोई टिप्पणी नहीं करता, जिससे उनका मन आहत हो। वो मेरे पिता हैं। मैं अपने पिता को कभी आहत नहीं कर सकता। लेकिन मुझे इस बात पर अफसोस होता है जब वो लिखते हैं कि चार बार के विधायक फिर जीतेंगे।
क्यों जीतेंगे? क्यों जीतना चाहिए? चार बार मतलब बीस साल। अरे बीस साल में जिसने अपने इलाके को सिंगापुर नहीं बनाया उसे वोट देकर आप अपनी खोपड़ी का भविष्य क्यों तय कराएंगे?
मैं तो कहता हूं कि आप चाहे गलती ही करें पर आजमाए को मत आजमाइए। मां कहती थी कि जो आजमाए को आजमाते हैं, वो मूर्ख होते हैं। खैर, बात निकलेगी तो दूर तक जाएगी। अभी तो खोपड़ी की कहानी पांचवी बार सुन लीजिए। देख लीजिए जो बाकी होता है, वो क्या होता है?
एक पंडित जी थे। बहुत गरीब लेकिन भविष्य पढ़ लेने में माहिर। भीख मांग कर जीवन काट रहे थे। एक दिन उन्हें रास्ते में मनुष्य की खोपड़ी मिली। पंडित ने खोपड़ी को उठा लिया और उसके मस्तक की लकीरों को पढ़ा, उसमें लिखा था “अभी कुछ बाकी है।”
पंडित जी बहुत हैरान हुए। उन्होंने अनुमान लगाया कि इसे मरे हुए पचास साल तो हो चुके हैं फिर अब इसका क्या बाकी है।
खैर, पंडित जी ने उस खोपड़ी को अपने थैले में रख लिया और आगे बढ़ चले भीख मांगने। लेकिन उस दिन उन्हें कहीं कुछ नहीं मिला।
रात में पंडित जी थके हारे घर आए, अपने थैले को खूंटी पर टांगा और चल पड़े गंगा में स्नान करने।
पंडित जी की पत्नी ने खूंटी पर टंगे थैले को उठाया और अंधेरे में ये जानने की कोशिश की कि आखिर आज पंडित जी को भीख में क्या मिला, और जो मिला उससे आज का खाना पकाया जाए। संजय सब देख रहे थे, चुपचाप।
अंधेरे में उन्हें कुछ ज्यादा पता नहीं चला, उन्हें थैले में कोई गोल सी चीज मिली। पंडित की पत्नी ने बहुत अनुमान लगाने की कोशिश की कि आखिर आज पंडित जी लाए क्या हैं? पर पता नहीं चल सका। उन्होंने सोचा कि चलो जो भी है और कूट कर उसका आटा बनाने लगीं, ताकि पंडित जी जब स्नान करके आएं तो दो रोटियां परोस सकें। बड़ी मुश्कलिस से उसे उन्होंने कूटना शुरु किया।
तब तक पंडित जी घर आ गए। आते ही पंडित की पत्नी ने उलाहना भरे स्वर में कहा, “अजी पंडित जी आज क्या लेकर आए थे थैले में? बहुत देर से कूट रही हूं, आटा बन ही नहीं रहा।” पंडित चौंका। उसने कहा, “अरे आज तो कुछ मिला ही नहीं, क्या थैले में से तुमने कुछ निकाला?”
पंडित की पत्नी ने कहा कि हां कुछ गोल सा था, अंधेरे में दिखा नहीं। पर जो था उसे ही कूट रही हूं।
पंडित को अचानक याद आया, खोपड़ी के मस्तक पर लिखा था, “अभी कुछ बाकी है” और पंडित मुस्कुराने लगा। उसकी समझ में आ गया कि यही बाकी था।
तो प्यारे परिजनों अभी कुछ बाकी है….इस कहानी का प्रसंग और संदर्भ भी बताउंगा, लेकिन जब तक नहीं बताता आप खुद भी सोचिए कि अभी और क्या बाकी है?

SanjaySinha

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