
सुप्रिय प्रसाद: शोर में सन्नाटे की सच्चाई खोजने वाला पत्रकार
10 जून केवल एक तारीख नहीं है, यह भारतीय टेलीविजन पत्रकारिता के उस अध्याय का उत्सव है, जिसने खबरों को चीख-पुकार से नहीं, संयम और समझदारी से परिभाषित किया। सुप्रिय प्रसाद—एक ऐसा नाम, जो न केवल एक संपादक का परिचय देता है, बल्कि उस मूल्य प्रणाली का प्रतीक है जिसे आज की ‘ब्रेकिंग न्यूज’ संस्कृति अक्सर पीछे छोड़ चुकी है।
एक अनायास शुरुआत, एक असाधारण यात्रा
झारखंड के दुमका से निकलकर देश की राजधानी तक पहुंचने की उनकी कहानी किसी स्क्रिप्टेड फिल्म से कम नहीं। कॉलेज के दिनों में मां के इलाज के बहाने पटना जाना और वहीं पत्रकारों की संगत में आकर खबरों से जुड़ाव—यही वह बिंदु था जहां से शौक ने पेशे की शक्ल लेनी शुरू की।
प्रभात खबर के लिए चुनावी रिपोर्टिंग और फिर आडवाणी की रथयात्रा के दौरान जेल में बंद नेताओं की रिपोर्टिंग करते हुए उन्हें एहसास हुआ कि पत्रकारिता सिर्फ सूचना नहीं, हस्तक्षेप भी होती है।
‘आजतक’ की नींव से शिखर तक
1995 में IIMC से पत्रकारिता की पढ़ाई के बाद सुप्रिय आजतक से जुड़े। शुरुआत में सिर्फ तीन महीने का कार्यकाल तय था, लेकिन जैसे ही न्यूज़रूम ने उनकी प्रतिभा पहचानी, वे तेज़ी से आगे बढ़ते गए।
आजतक में 13 वर्षों की भूमिका, फिर ‘न्यूज 24’ की स्थापना में निर्णायक भागीदारी और दोबारा आजतक में वापसी—यह उनके करियर की केवल रूपरेखा नहीं, बल्कि उस निरंतरता का प्रमाण है जो किसी भी पेशेवर को महान बनाती है।
टीआरपी की होड़ में नहीं, सच्चाई की ओर
जब ज़्यादातर चैनल ‘पहले ब्रेक’ करने की होड़ में तथ्यों से समझौता कर बैठते हैं, सुप्रिय प्रसाद वहीं ठहरकर, सोचकर, फिर बोलने के हिमायती रहे हैं। 100 हफ्तों तक आजतक को टीआरपी में शीर्ष पर बनाए रखना सिर्फ आंकड़ों की बाजीगरी नहीं, एक सम्पादकीय दृष्टिकोण की जीत है—एक ऐसा दृष्टिकोण जो दर्शकों को भरोसे के साथ जोड़ता है।
व्यक्तित्व: अनुशासन, सरलता और प्रामाणिकता
व्यक्तिगत जीवन में भी वे उतने ही सादे और अनुशासित हैं जितने प्रोफेशनल मोर्चे पर। धूम्रपान या शराब से दूर रहना, लेकिन बिरयानी या मटन को देखकर आंखों की चमक बढ़ जाना—उनका यही सहज स्वभाव उन्हें और मानवीय बनाता है।
उनकी जीवनसंगिनी अनुराधा प्रीतम भी आजतक की पत्रकार हैं। सुप्रिय मज़ाक में कहते हैं, “मेरी ज़िंदगी में तीन AP रहे हैं—अरुण पुरी, अनुराधा प्रसाद और अनुराधा प्रीतम—तीनों ही बॉस!” यह विनम्रता और पारदर्शिता ही उनकी पहचान है।
पत्रकारिता की नई पीढ़ी के लिए एक आदर्श
उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि सिर्फ टीआरपी नहीं, बल्कि वह दर्जनों पत्रकार हैं जो आज भी उन्हें अपना मेंटॉर मानते हैं। वे तकनीक के जानकार हैं, राजनीतिक समझ उनके हर विश्लेषण में झलकती है, लेकिन सबसे खास है उनका संतुलन—न भावुकता में बहते हैं, न सनसनी में उलझते हैं।
निष्कर्ष: एक जन्मदिन नहीं, एक सिद्धांत का उत्सव
10 जून को सुप्रिय प्रसाद को जन्मदिन की बधाई देना दरअसल उस विश्वास को सलाम करना है जो कहता है—पत्रकारिता अब भी सच्ची हो सकती है। वे दिखाते हैं कि न्यूज़रूम में भी धैर्य, गरिमा और गहराई के लिए जगह है।
वे केवल पत्रकार नहीं, उस युग के आखिरी सिपाही हैं जो खबरों को ‘चीख’ नहीं, ‘चरित्र’ बनाते हैं।