पवित्र नगरी हरिद्वार, जहां घाटों पर आस्था की ज्योति जलती है, वहीं दूसरी ओर सरकारी दफ्तरों में ‘दिवाली की लिफाफा पार्टियों’ की लौ अब पत्रकारिता की ईमानदारी को जला रही है। दिवाली के मौके पर जहां आम लोग घरों को सजाते हैं, वहीं कुछ पत्रकार अफसरों के दफ्तरों की सीढ़ियां चढ़कर “लिफाफे” लेने पहुंच जाते हैं — और यह लिफाफा अब शुभकामना नहीं, बल्कि “मौन सौदा” बन गया है।
कैसे होती है ‘लिफाफा पार्टी’
हर साल दिवाली से कुछ दिन पहले हरिद्वार के कई सरकारी विभागों में एक अघोषित रिवाज़ निभाया जाता है।
सुबह से शाम तक पत्रकारों का तांता ऑफिसों में लगा रहता है — कोई “सर, दिवाली की बधाई देने” आया है, कोई “कवरेज के बहाने” दस्तक देता है। अंदर से निकलते हैं मिठाई के डिब्बे, जिनके साथ दबे स्वर में सौंपा जाता है एक ‘लिफाफा’, जिसमें रकम विभाग और संबंध के हिसाब से तय रहती है।
एक विभागीय कर्मचारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा —
“साहब के कहने पर हर साल प्रेस वालों के लिए अलग से बजट रख दिया जाता है। सबको खुश रखना पड़ता है, वरना अगले दिन खबर बन जाती है।”
पत्रकार या ‘मांगने वाला’?
हरिद्वार के पत्रकारिता जगत में इस प्रथा को लेकर गहरी चिंता है। कुछ ईमानदार पत्रकार इसे “मीडिया का सबसे काला अध्याय” बताते हैं।
एक वरिष्ठ संपादक ने कहा —
“जब पत्रकार खुद अफसरों के दरवाजे पर लिफाफे के लिए पहुंचता है, तो फिर जनता की आवाज़ कौन उठाएगा? यह भीख नहीं, आत्मसम्मान की बोली है।”
कई नए और युवा पत्रकारों का मानना है कि यह परंपरा पुराने पत्रकारों से चली आ रही है, जिसने अब पूरे पेशे को बदनाम कर दिया है। कुछ ने तो सोशल मीडिया पर खुलकर लिखा —
“दिवाली की शुभकामनाएं नहीं, अब पत्रकारों की बोली लगती है।”
अफसरों का तर्क और चुप्पी
जब इस बारे में अफसरों से सवाल पूछा गया तो ज्यादातर ने “औपचारिकता” का हवाला देकर पल्ला झाड़ लिया।
एक अधिकारी ने कहा —
“हम तो बस रिश्ते निभाते हैं। पत्रकार हमारे मित्र हैं, उनको मिठाई देना परंपरा है।”
लेकिन सवाल यह है कि अगर मिठाई के साथ लिफाफे भी दिए जा रहे हैं, तो यह रिश्ता पारदर्शिता का है या स्वार्थ का?
हरिद्वार में साख पर धब्बा
हरिद्वार जैसे आध्यात्मिक शहर में जहां पत्रकारिता जनता और धर्म, दोनों के बीच पुल का काम करती रही है, वहां इस तरह की ‘लिफाफा संस्कृति’ ने पूरे पेशे की साख को कलंकित कर दिया है।
जनता अब सवाल पूछ रही है —
“क्या हमारे मुद्दे तब ही खबर बनेंगे जब ‘लिफाफा’ खाली रहेगा?”
हरिद्वार प्रेस क्लब और राज्य के पत्रकार संगठनों के लिए यह चेतावनी का समय है।
जरूरत है कि ऐसी परंपराओं पर सख्त रोक लगे, और पत्रकारिता को फिर से सम्मान और सच्चाई की राह पर लाया जाए। क्योंकि अगर कलम बिकने लगे, तो सच मर जाता है।
संपादक – संजय कश्यप bhadas2media.com
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