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आजकल के रिपोर्टर किसी नेता के बयान को ही प्रमाण मान कर छाप देते हैं।

 आजकल के रिपोर्टर किसी नेता के बयान को ही प्रमाण मान कर छाप देते हैं।

कुछ रोज़ पहले वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र बोड़ा जी ने कुछ ऐसा लिखा था कि आजकल के रिपोर्टर किसी नेता के बयान को ही प्रमाण मान कर छाप देते हैं। मैं इस बात को पिछले सप्ताह में दो बार निकट से अनुभव कर चुका हूँ। नवस्थापित विश्वविद्यालय के बारे में तीन साल तो कहने को कुछ न मिला। अब ज्यों-ज्यों मेरी कार्यावधि पूरी होने को आती है, कतिपय नेताओं (आप जानते हैं कौन) का उत्साह असत्य गढ़ने में बढ़ता जाता है। एक बार वे विवि को बंद करवा चुके। अब इसकी सफलता शायद देखी नहीं जाती।

पिछले ही सप्ताह एक नेता ने कहा था कि हम यूजीसी के नियमों से अपने नियम बनाकर भर्ती कर रहे हैं। हास्यास्पद बात थी, पर छपी। अब एक अन्य नेता बोले हैं कि पत्रकारिता विवि का लोगो (प्रतीक-चिह्न) “हिंदी का प्रचार-उत्थान” नहीं करता, जबकि “संविधान के अनुच्छेद 351 के अनुसार हिंदी भाषा का प्रयोग प्रत्येक सरकारी संस्थान के लोगो में अनिवार्य एवं अपरिहार्य है”। उन्होंने “संस्कृत के प्रेरणादायी वाक्य” को भी प्रतीक-चिह्न में जोड़ने की बात बयान में लिखी है।

लोगो निर्माण में संविधान? किसी ने कहा और बयान जारी कर दिया। देखा तक नहीं कि लोगो के साथ विवि का नाम हिंदी और अंगरेज़ी दोनों में लिखा है। हालाँकि लोगो एक चाक्षुष (विजुअल) प्रतीक “चिह्न” भर होता है। उसे भाषा से नहीं, आकृति से पहचाना जाता है। अच्छे लोगो को शब्दों के सहारे की ज़रूरत नहीं होती। निश्चय ही पहले श्लोक या सूक्तियाँ लिखने की रिवायत चलती थी। लेकिन अब भारत सरकार के अपने लोगो (अनेक उदाहरण नत्थी हैं, देख लीजिए) आकृतिमूलक ही होते हैं। और ज़्यादातर तो अंगरेज़ी में। हमारे लोगो की मुख्य चित्रात्मक डिज़ाइन में HJU प्रथमाक्षर (शब्द नहीं) ज़रूर अंकित हैं, जिन्हें विवि की व्यापक पहचान बनाने के लिए सृजक ने, डिज़ाइन पारित करने वाली कलाकारों की समिति ने और फिर विवि के सर्वोच्च नियामक प्रबंध बोर्ड ने उपयुक्त समझा।

सचाई यह है कि हिंदी के प्रचार-प्रसार का जितना काम हम अपने यहाँ कर रहे हैं, कम विश्वविद्यालय कर रहे होंगे। विवि का सारा प्रशासनिक काम हिंदी में होता है। पाठ्यक्रम, पाठ्यचर्या सब पहले हिंदी में अंजाम पाते हैं। हमारी वैबसाइट मूलतः हिंदी में तैयार की गई है। अनेक विश्वविद्यालय जिसे अंगरेज़ी में तैयार करते हैं, गूगल-अनुवाद से “हिंदी” करते हैं।

फिर अपूर्वानंद, हेतु भारद्वाज, हरिराम मीणा, राजेंद्र बोड़ा, अनुराग चतुर्वेदी, दुर्गाप्रसाद अग्रवाल, आनंद प्रधान, एआर पन्नीरसेल्वन, रवीश कुमार, उर्मिलेश, प्रियदर्शन, अजीत अंजुम, आशुतोष, मुकेश कुमार, संजय पुगलिया, अतुल चौरसिया, सुधा चौधरी, वासवी, शंभुनाथ आदि अनेकानेक संपादकों-पत्रकारों-स्तम्भकारों और लेखकों ने हमारे यहाँ संबोधित किया है, पाठ्यक्रम बनाने में सहयोग किया है। अशोक वाजपेयी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, कुमार प्रशांत, नंदकिशोर आचार्य, मृदुला गर्ग आदि ने मार्गदर्शन दिया है। क्या ये हिंदी के मान्य हस्ताक्षर नहीं हैं?

दरअसल, यह समझना ज़रूरी है कि विश्वविद्यालय कोई सरकारी विभाग नहीं होता। सरकार उसे स्थापित करती है, वित्त का प्रावधान भी करती है। परंतु विश्वविद्यालय अपनी संरचना में स्वायत्त ही नहीं होते, बल्कि (विवि के अधिनियम के अनुसार) “बॉडी कॉरपोरेट” होते हैं, जिन्हें उसका प्रबंध मंडल नियमित-नियंत्रित करता है। बोर्ड में शिक्षा क्षेत्र के विद्वानों के साथ सरकार, राजभवन, विधायिका और कार्यपालिका के प्रतिनिधि शामिल होते हैं। विवि का प्रत्येक निर्णय (लोगो निर्धारण सहित) बोर्ड में विचार और सम्मति के बाद ही लागू होता है।

बात लम्बी क्या करना। हमारा प्रतीक-चिह्न यह रहा सामने। और साथ में उनके स्वयंसेवक संघ और केंद्र सरकार की योजनाओं के कुछ लोगो भी देख-दिखा लीजिए! इनकी सूची बहुत लम्बी है। हाँ, लगे हाथ यह भी देखा जाए कि प्रधानमंत्री और उनके मंत्री ज़्यादा ट्वीट किस भाषा में करते हैं। क्या उनके लिए संविधान का कोई अलग अनुच्छेद काम करता है?

ओउम थानवी जी

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