
एलडीए सूची लीक विवाद में पत्रकारिता पर सवाल, संपादक पर कानूनी शिकंजा, उजाला पत्रिका के संपादक परवेज़ आलम पर कानूनी गाज, ब्लैकमेल के मनगढ़ंत आरोप बने गले की फांस,
लखनऊ। पत्रकारिता जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, आज लखनऊ में एक गंभीर विवाद के केंद्र में है। लखनऊ विकास प्राधिकरण की कथित तौर पर लीक हुई 28 लोगों की सूची और ‘उजाला पत्रिका’ के संपादक परवेज़ आलम को मिला कानूनी नोटिस इस बात का सबूत है कि पत्रकारिता का पवित्र पेशा कुछ लोगों के लिए महज सनसनी और ब्लैकमेलिंग का हथियार बन गया है। यह मामला न केवल पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर सवाल उठाता है, बल्कि समाज में तथ्यों की पड़ताल के बिना खबरों को छापने की खतरनाक प्रवृत्ति को भी उजागर करता है।
हिंदुस्तान में प्रकाशित एक खबर के बाद यह मामला सुर्खियों में आया, जिसमें दावा किया गया कि एलडीए ने 28 लोगों की एक सूची तैयार की थी, जिन पर फर्जी शिकायतों के जरिए आम लोगों को परेशान करने का आरोप था। इस सूची में आरटीआई कार्यकर्ता, समाजसेवी, अधिवक्ताओं और पत्रकारों के नाम शामिल थे। ‘उजाला पत्रिका’ ने इस सूची को छापकर दावा किया कि यह एलडीए द्वारा ही जारी की गई थी। लेकिन एलडीए ने स्पष्ट किया कि उसने ऐसी कोई सूची न तो व्हाट्सएप पर, न ही ईमेल के जरिए किसी पत्रकार को दी। फिर सवाल यह उठता है कि यह सूची पत्रिका तक कैसे पहुंची और इसे बिना सत्यापन के छापने का मकसद क्या था?
‘उजाला पत्रिका’ के संपादक परवेज़ आलम को अधिवक्ता संजीव शुक्ला ने अपने मुवक्किल मोहम्मद सैफ के नाम और नंबर के साथ गोपनीय सूची छापने के लिए कानूनी नोटिस भेजा। पत्रिका ने इस सूची में शामिल लोगों को ‘वसूलीबाज’ और ‘ब्लैकमेलर’ जैसे गंभीर आरोपों से नवाजा, जबकि एलडीए की मूल सूची में ऐसे किसी भी आरोप का उल्लेख नहीं था। यह मनगढ़ंत आरोप न केवल गैर-जिम्मेदाराना पत्रकारिता का उदाहरण है, बल्कि सम्मानित व्यक्तियों की प्रतिष्ठा को धूमिल करने का एक सुनियोजित प्रयास भी प्रतीत होता है।
यह मामला आज की पत्रकारिता के खोखलेपन को उजागर करता है। तथाकथित ‘पत्रकारों’ की एक बड़ी जमात अब व्हाट्सएप ग्रुपों से प्राप्त जानकारी को बिना जांचे-परखे ‘सत्य’ मानकर छाप रही है। ‘खबर की पड़ताल’ जैसे शब्द तो जैसे उनके शब्दकोश से गायब हो चुके हैं। ऐसे में, जो व्हाट्सएप पर ‘चलता’ है, वही खबर बन जाता है। यह लापरवाही नहीं, बल्कि जानबूझकर फैलाया गया भ्रम है, जो पत्रकारिता को भ्रष्टाचार और ब्लैकमेलिंग के दलदल में धकेल रहा है।
‘उजाला पत्रिका’ जैसे प्रकाशनों का रवैया इस बात का सबूत है कि कुछ लोग पत्रकारिता की आड़ में अपनी दुकान चमकाने और दूसरों को बदनाम करने का धंधा चला रहे हैं। बिना सबूतों के गंभीर आरोप लगाकर ये तथाकथित पत्रकार न केवल व्यक्तियों के सम्मान के साथ खिलवाड़ करते हैं, बल्कि पूरे पेशे को बदनाम करते हैं। शर्मनाक बात यह है कि ऐसे कई ‘अखबार’ शायद नियम-कानूनों का पालन भी नहीं करते और ठेके-पत्ते पर चलाए जा रहे हैं।
एलडीए की सूची में शामिल लोगों को ‘ब्लैकमेलर’ करार देना न केवल अनैतिक है, बल्कि कानूनी रूप से भी आपराधिक हो सकता है। यह पत्रकारिता नहीं, बल्कि चरित्र हनन का एक सुनियोजित खेल है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इन तथाकथित पत्रकारों को खुली छूट दी जानी चाहिए? क्या बिना सबूतों के किसी के चरित्र पर कीचड़ उछालना पत्रकारिता का हिस्सा है? यह वही लोग हैं जो खुद भ्रष्टाचार में डूबे हैं, लेकिन दूसरों पर ‘चोर’ का ठप्पा लगाने में जरा भी नहीं हिचकते।
यह प्रकरण पत्रकारिता के पेशे के लिए एक चेतावनी है। जब तक ऐसे ‘नीम-हकीम’ पत्रकारों पर लगाम नहीं कसी जाएगी, तब तक पत्रकारिता का मूल उद्देश्य-सत्य और न्याय की रक्षा-खोखला बना रहेगा। यह समय है कि प्रशासन, सूचना विभाग और समाज मिलकर इस पेशे को साफ करें, ताकि पत्रकारिता फिर से अपनी खोई हुई गरिमा को हासिल कर सके। जब तक ऐसे ‘बदनुमा दाग’ हटाए नहीं जाएंगे, तब तक ‘स्वच्छ पत्रकारिता’ की बात करना महज एक खोखला नारा ही रहेगा।
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