उत्तराखंड में पत्रकारिता की दुनिया अब दो हिस्सों में बंटी नज़र आ रही है—एक तरफ ऐसे पत्रकार हैं जिन्होंने कुछ ही वर्षों में करोड़ों की संपत्ति अर्जित कर ली है, जबकि दूसरी तरफ ऐसे पत्रकार हैं जो रोज़मर्रा की जरूरतें पूरी करने के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं। हरिद्वार, देहरादून, ऋषिकेश, उधमसिंहनगर, हल्द्वानी और पौड़ी जैसे जिलों में यह असमानता और भी स्पष्ट दिखाई देती है।
सूत्रों के अनुसार, राज्य के कुछ पत्रकारों ने बीते कुछ वर्षों में आलीशान बंगले, लग्ज़री गाड़ियाँ और शहरों में महंगे प्लॉट खरीदे हैं। वहीं दूसरी ओर, छोटे कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वाले अनेक पत्रकार ऐसे हैं, जो न्यूनतम वेतन पर या कई बार बिना किसी मानदेय के काम करने को मजबूर हैं।
स्थानीय स्तर पर “लिफाफा संस्कृति” भी गहराई से जड़ें जमा चुकी है। कहा जा रहा है कि कुछ पत्रकार किसी कार्यक्रम या आयोजन में सिर्फ इसलिए पहुंचते हैं ताकि उन्हें “लिफाफा” मिल सके। चाहे किसी बिल्डर का अवैध निर्माण हो, खनन का मामला हो या किसी संत-महात्मा के भंडारे का आयोजन—इन जगहों पर कुछ पत्रकार भोजन करें या न करें, पर 500 या 1000 रुपये का लिफाफा लेना नहीं भूलते।
हरिद्वार में भी ऐसे कई पत्रकारों के उदाहरण सामने आए हैं जो कभी साप्ताहिक समाचार पत्र चलाते थे, लेकिन आज करोड़ों की संपत्ति के मालिक बन चुके हैं। वहीं, दूसरी ओर कई फ्रीलांस पत्रकार और डिजिटल पोर्टल से जुड़े लोग महीनों तक बिना वेतन के काम कर रहे हैं।
स्थानीय पत्रकार संगठनों ने इस असमानता पर गहरी चिंता व्यक्त की है। उनका कहना है, “पत्रकारिता सेवा का माध्यम है, व्यवसाय नहीं। यदि कोई पत्रकार कुछ वर्षों में करोड़ों की संपत्ति अर्जित करता है, तो उसकी जांच अवश्य होनी चाहिए।”
राज्य के वरिष्ठ पत्रकारों ने मुख्यमंत्री से अपील की है कि पत्रकारों की संपत्ति का खुलासा सार्वजनिक किया जाए और उनकी आय के स्रोतों की जांच के लिए एक स्वतंत्र समिति गठित की जाए।
वहीं, आम जनता में भी यह चर्चा तेज़ है कि जब सरकारी कर्मचारियों, राजनेताओं और अधिकारियों की संपत्तियों का खुलासा किया जा सकता है, तो पत्रकारों को इससे छूट क्यों दी जाए?
कई युवा पत्रकारों का कहना है कि आज पत्रकारिता में सच्चाई और जनहित से ज़्यादा “लाभ” देखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। “जो पत्रकार ईमानदारी से काम कर रहे हैं, उन्हें हाशिए पर धकेला जा रहा है, जबकि प्रभावशाली और चमक-दमक वाले पत्रकार ही तरक्की कर रहे हैं,” एक युवा पत्रकार ने कहा।
पत्रकारिता की इस विषम और चिंताजनक स्थिति ने उत्तराखंड में मीडिया की विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। अब देखना यह है कि सरकार और मीडिया संस्थान इस असमानता पर कब और कितना ठोस कदम उठाते हैं।
संपादक – संजय कश्यप bhadas2media.com
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